मैं गाँव हूं बोल रहा हूं, अपनी पोलें खोल रहा हूं
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
मैं भी कभी तुम्हारी तरह नौजवान था,
मेरा भी रंग लाल था,
मुझ पर भी खुसियां मरती थी,
पूरे दिन काम, और पूरी रात आराम था,
आज पूरी रात काम है,
और कहीं पूरा दिन आराम है,
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
मैं भी कभी व्यवस्थित था,
मेरा नाम भी सम्मान सें स्थित था,
अब मैं कीचड से दब रहा हूं ,
गली गली में सड रहा हूॅ।
पहले पंचायत लगती थी,
अब अन्याय का शुरूआता हूं ,
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
पहले मुखिया पगडी बांधता था,
मेरी लाज की खातिर,,,,,,,,,,,,,,,,,
अपनी पगडी बांटता था,
मेरी इज्जत, उसकी इज्जत,
उसकी रोटी मेरी होती,
मेरी धोती को अपनी पोती मानता था।
अब इसका उल्टा हाल है भईया,
सारा जग ये जानता है।
बने प्रधान जो कोई,
सीधे काली गाडी मांगता है,
नही तो धमकी गाली बांटता है।
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
मेरी कोख को सूनी कर दें ,
ऐसी उसकी कामना है,
नही रहे पोखर कोई,
नही बचा मैदान कोई।
सबके पट्टे कर डाले,
अपने ही किसी दऊआ को।
करे सवाल जो जनता कोई,
कह देता मिलना परसऊआ को।
भडक रही हर चिडियां मेरी,
पाट दिया हर कुइंया को,
मैं गांव हूं बोल रहा हूं, अपनी पोले खोल रहा हूं,
फिर गाॅव परेषान होकर गाॅव वालों से पूछता है।
ऐ जनता तुझसे मेरा एक सवाल है,
तु कैसी मेरी संतान है ?
मैं मुर्दा होकर भी दहाड रहा हूं,
तू बोल नही रहा जिन्दा होकर भी,
जिसकी गोद में बसा हुआ है पूरा भारत
मैं वही निर्धन बाप पुकार रहा हूं ,
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
क्या तू मेरी संतान नही है ?
क्या तुझमें बस्ता कोई इंसान नही है ?
कैसे चुप रह लेता है ?
मेरी जरजर हालत पर !!!!!!!!!!!!!
क्या इतना कुछ सुन कर भी,
बढ रहा तेरा रक्त संचार नही है,
कर परिर्वतन अपनी काया का,
अब इसमें जीना आसान नही है।
मैं मुर्दा बोला हूं ,
तू जिन्दा है, और इंसान सही है,
तू मुर्दाबाद बोल उन्हें,
जहां मिले प्रधान कही है,
बेईमान यही है, सैतान यही है,
गांव का करते, व्यापार यही है,
मां की पेन्सन , आवास की माया,
पग-पग कर के दलाली इसने,
अपने घर को महल बनाया,
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
– कोटे से की हिस्सेदारी,
आंगनवाडी इस्से हारी,
स्कूलों से महीना बधवाया,
प्ंाचायत के पैसो से,
अपने घर को पुतवाया,
इतना कुछ मैं झेल रहा हूं,
अपने जख्मो की खातिर बोल रहा हूं,
मैं गांव हूं बोल रहा हूं , अपनी पोले खोल रहा हूं ,
– अपने रिस्ते का फर्ज निभाओं,
मेरी हालत पर एक कदम उठाओं।
अपने गांव में दक्ष बुलाओं,
एक-एक करके दक्षेस हो जाओं।
वह तुम्हें दक्ष के गुण सिखलाएगा,
समझने की क्षमता बढ जायेगी तुम्हारी,
कोई नही फिर तुम्हें छल पायेगा,
चलो उठो , उठ जाओं तुम,
अपनी ताकत दिखलाओं तुम,
मैं भी तुम्हारे साथ हूं,
इस हालत में भी कुछ करने को बेताब हूं,
करो चुनाव एक मुखिया का,
जो सम्मान करे हर बिटियां का,
प्रधान मिले पंचायत घर में,
नही बहाना करें,
अपनी कुटिया का,
जिसको मिलना हो पंचायत घर आजाये,
प्रधान उपस्थित हो हर दम,
हर बात को खुली सभा में रखवाये।
आवास की न बेइमानी हो,
पेन्सन में न कोई मन मानी हो,
जीवन शैली उसकी गांव की जूठन हो,
भाषा उसकी बढिया नूतन हो।
– चुनावी विगुल न बजाता हो,
हर वक्त कार्य वो करवाता हो,
हर काम जो करवाये सही,
गांव का मुखिया कहलाये वही।
– अवला कोई मिल जाये तो,
दास वो बन जाये वही,
मिले कही जो गुन्डो का डेरा,
दक्ष का करतब दिखलाये वही,
ऐसा पात्र बनाओं तुम,
मेरी संतानों उठ जाओं तुम।
– पिता हूं तुम्हारा, अब मैं हार गया हूॅ,
अब तो कह दो , मैं अब मैं जाग गया हूं
अपनी ताकत पहचान गया हूं,
तुम्हारे जख्मों को भरवाऊॅगा,
ऐसा ही प्रधान बनवाऊगाँ,
बेटा मेरी सांसें छूट रही है,
जा मैं तुमसे दूर रहा हूं,
एक और बात कहना भूल रहा हूं,
अबकी मतदान मैं ये न कहना,
जो प्रत्यासी जीत रहा है,
मैं तो उसी को पूज रहा हूं।
मैं गांव हूं बोल रहा हूं ,
अपनी पोले खोल रहा हूं ,